वृंदावन की धरती, जिसे भक्ति और आस्था की राजधानी कहा जाता है, इन दिनों संत समाज की नई तकरार का गवाह बनी हुई है। विवाद की जड़ है संस्कृत श्लोक और चमत्कार का प्रश्न, जिसने दो महान संतों जगद्गुरु रामभद्राचार्य और प्रेमानंद महाराज को आमने-सामने खड़ा कर दिया है।
कैसे शुरू हुआ विवाद
दरअसल, एक पॉडकास्ट में जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने यह कहकर हलचल मचा दी कि वह प्रेमानंद महाराज को चमत्कारी संत नहीं मानते। उन्होंने चुनौती देते हुए कहा –
“यदि वे वास्तव में चमत्कारी हैं, तो अपने संस्कृत श्लोक का हिंदी में अर्थ बताकर दिखाएं।”
इस टिप्पणी को सुनकर प्रेमानंद महाराज के अनुयायी और ब्रज के कई संत आहत हो उठे।
संत समाज का पलटवार
ब्रज के संतों ने रामभद्राचार्य की बात को ‘ज्ञान पर अहंकार’ करार दिया। उनका कहना है कि भक्ति का मूल्यांकन भाषा, विद्वता या श्लोकों की व्याख्या से नहीं होता।
एक संत ने तीखे लहजे में कहा –
“भक्ति हृदय की अनुभूति है, यह किसी शास्त्रार्थ या संस्कृत के कठिन शब्दों से नहीं बंधी है।”
कई संतों ने तो यहां तक सवाल उठाए कि रामभद्राचार्य का ज्ञान भक्तिभाव के बिना अधूरा है।
समर्थकों में नाराज़गी
प्रेमानंद महाराज के हजारों अनुयायी इस बयान से आक्रोशित हैं। उनका कहना है कि महाराज ने हमेशा भक्तों को सरल भक्ति का मार्ग दिखाया है, न कि विद्वत्ता का प्रदर्शन।
भक्तों का तर्क है कि –
“जिनके चरणों में भक्तों की आस्था है, उन्हें संस्कृत के श्लोकों से साबित करने की ज़रूरत नहीं।”
भक्ति बनाम ज्ञान – एक पुराना द्वंद्व
यह विवाद केवल दो संतों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि संत समाज में भक्ति बनाम ज्ञान की बहस को और गहरा कर गया है। एक ओर विद्वता और शास्त्रार्थ की परंपरा है, दूसरी ओर सहज भक्ति और चमत्कार की स्वीकार्यता।
ब्रज में इस समय यही चर्चा है कि –
“क्या संत का मूल्यांकन उसके चमत्कार और शास्त्र ज्ञान से होगा, या फिर उसके भक्तिपथ और आस्था से?”
माहौल गरमाया, समाज बंटा
इस पूरे प्रकरण ने वृंदावन के संत समाज को दो हिस्सों में बाँट दिया है। एक धड़ा प्रेमानंद महाराज के पक्ष में खड़ा है तो दूसरा रामभद्राचार्य की विद्वता को उचित ठहरा रहा है।
लेकिन अधिकांश भक्तों की भावनाएँ यही कहती हैं कि –
“सच्चा संत वही है जो हृदय की गहराइयों को छू ले, चाहे वह संस्कृत जाने या न जाने।”

